श्राद्ध (पितर) पक्ष : दानवीर कर्ण को मृत्यु के बाद श्राद्ध भोजन दान करना पड़ा, किसने किया था कर्ण का मृत्यु संस्कार, पढ़ें पौराणिक कथा

दानवीर कर्ण महाभारत (महाकाव्य) के सबसे प्रमुख पात्रों में से एक हैं। कर्ण महाभारत के सर्वश्रेष्ठ धनुर्धारियों में से एक थे। महाराज दानवीर कर्ण पांडवों के छ: पुत्रों में सबसे बड़े भाई थे। भगवान परशुराम ने कर्ण को शिष्य बनाकर उन्हें सम्पूर्ण विद्या प्रदान की थी। कर्ण की वास्तविक माँ कुन्ती थीं और महाराज कर्ण के आध्यात्मिक पिता महाराज पांडु थे। कर्ण के वास्तविक पिता भगवान सूर्यनारायण थे। दानवीर कर्ण का जन्म पाण्डु और कुन्ती के विवाह के पहले हुआ था।

कर्ण दुर्योधन का सबसे प्रिय मित्र था। जब महाभारत का युद्ध हुआ तो उसमें वह अपने भाइयों के विरुद्ध लड़ाई की थी। कर्ण को एक आदर्श दानवीर माना जाता है क्योंकि कर्ण ने कभी भी अपने पास आये हुए को खाली हाथ जाने नहीं दिया। भले ही दान से प्राण संकट में क्यों न पड़ गए हों। भगवान इंद्र ने कर्ण से जीवन रक्षक कुंडल और दिव्य कवच को मांग लिया और कर्ण ने सहर्ष स्वीकार कर भगवान इन्द्र को दे दिए थे।

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कर्ण का मृत्यु संस्कार  

पौराणिक कथा के अनुसार, महाभारत कालीन, सूर्यपुत्र योद्धाकर्ण की मृत्यु होने के बाद कर्ण का मृत्यु संस्कार भगवान् श्री कृष्ण द्वारा किया गया। जब कर्ण की आत्मा स्वर्ग पहुंची तो उन्हें बहुत सारा स्वर्ण परोसा गया । कर्ण की आत्मा ने देवराज इंद्र से पूछा मैं स्वर्ण कैसे खा सकता हूं। मुझे भी भोजन में अन्य देवात्माओं की तरह सुस्वद्पूर्णभोज्य पदार्थ दिए जाना चाहिए। भगवान इंद्र ने कर्ण को कहा कि “तुमने अपने जीवन में सदैव ही सोना दान किया। इसलिए जो दान किया वही मिलेगा। अपने पूर्वजों को कभी भी भोजन का दान नहीं दिया। कर्ण ने इंद्र से कहा “जब मुझे यह ज्ञात नहीं था कि मेरे पूर्वज कौन थे तो मै किसको क्या देता?

कर्ण ने विनम्रता पूर्वक शब्दों में कहा, प्रभु जो हुआ, वह मेरी मुर्खता अज्ञानता थी, सामाजिक कार्य से विमुख रहा अब इसका क्या उपाय है, जिससे मुझे भी भोजन मिल सके। इंद्र ने कर्ण की प्रार्थना स्वीकार करते हुए व्यवस्था दी कि आगामी 16 दिन अपने पूर्वजों को स्मरण कर शास्त्रीय विधि से श्राद्ध कर उन्हें उत्तम पकवान आहार दो।

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16 दिन किये अपने पितरों की सेवा

कर्ण ने अपने कल्याण एवं तृप्ति के लिए सहर्ष स्वीकार किया, फलस्वरूप कर्ण को 16 दिन के लिए अपने पितरों की सेवा का अवसर  दिया। पितरों को कर्ण के लिए आमंत्रित किया गया। पृथ्वी पर आकर कर्ण ने गाय, ब्राह्मण, साधु-संतो और नारायण की सेवा की और उनको अन्न दान किया। इसके पश्चात् कर्ण पुनः स्वर्ग पहुंचे। 15 दिनों के लिए समस्त पितृ आत्माएं तृप्ति के लिए अपने वंशजो/कुल, परिवार के घर, कुल से तर्पण और अन्न की अपेक्षा आती हैं। ये ही 16 दिन की अवधि को कालांतर में पितृ पक्ष कहा जाने लगा। इन 16 दिनों में पितरों के नाम से तर्पण, यज्ञ, दान आदि करने से पितृदेव प्रसन्न होकर आशीर्वाद प्रदान करते हैं।

आलेख : पंडित विजेन्द्र कुमार तिवारी ज्योतिषाचार्य

पंडित वी. के. तिवारी

 

श्राद्ध (पितर) पक्ष पर यह नौवीं पौराणिक कथा हैं।

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