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Chhattisgarh : फुलझर का भैना राजवंश, जानें इनका पूरा इतिहास, पढ़ें पूरी खबर

छत्तीसगढ़ (Chhattisgarh) में भैना राजवंश के संस्थापक ठाकुर जगत साय थे जो मानिकपुर के जोहन साय के कुलोतपन्न मंडल नागवंश साय के पुत्र थे। इस वंश का संबंध प्राचीन काल में मिथिला के राजवंश से जुड़े होने का दावा किया जाता है। राणा महिपत सिंह कृत भानुवंश प्रकाश संहिता के अनुसार रतनपुर राज के राजा जाजल्ल देव (ईसवी सन 1165-1178) थे जिन्होंने जगत साय को परमगढ़ (पामगढ़) का मांडलिक/सामंत बनाया था। सन 1177 में बस्तर राजा के सेनापति त्रिभुवन देव ने परमगढ में आक्रमण किया जिसका सामना जगत साय और दुर्ग के मांडलिक/सामंत जगपाल देव ने वीरतापूर्वक किया और त्रिभुवन देव की सेना को कलचुरि राज्य की सीमा से बाहर खदेड़ दिया था।

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दोनों मंडलिको/सामंतों की वीरता से प्रभावित होकर राजा जाजल्ल देव ने बिलासपुर, पेंड्रा, भटगांव, धमतरी इत्यादि गढ़ों में जगत साय के निकट के रिश्तेदारों को सामंत नियुक्त कर दिया। जगत साय ने सर्व प्रथम धमतरी की स्थानीय “रक्षक देवी बिलाई माता” को अपने कुल देवी की मान्यता दिया तत्पश्चात बिलासपुर की “नकटी देवी” को। इसी काल में जगत साय ने पश्चिमी ओडिशा के सोमवंशी राज्यों में आक्रमण कर राजा कर्ण केशरी देव को पराजित कर फुलझर राज्य को अपने अधीन बना लिया। सामंत जगत साय ने खेम साय को फुलझर का सामंत नियुक्त करा दिया।

सामंत खेम साय ने बूढ़ाडोंगर को अपना मुख्यालय बना लिया। जगत साय ने फुलझर की स्थानीय देवी “खंभेश्वरी माता” को अपना कुल देवी बना लिया। इस प्रकार भैना राजवंश में तीन कुल देवियां क्रमशः बिलाई माता, नकटी माता और खंभेश्वरी माता स्थापित हुई। खंभेश्वरी माता का संबंध पड़ोसी राज्य के नरसिंह नाथ से भी जोड़ा जाता है। सबर वंश की समलेश्वरी माता को भी इन्होंने स्वीकार किया था। भैना सामंतों ने फुलझर राज के कुछ स्थानों में बिलाई माता की स्थापना कर गढ़ (किला) निर्माण किए जिसमें से एक बिलाईगढ वर्तमान में है।

भानुवंश प्रकाश संहिता के अनुसार 12 वीं से 16 वीं सदी तक छत्तीसगढ़-ओडिशा के सीमांत क्षेत्रों में रतनपुर के कलचुरि राजाओं के अधीन भैना वंश के 18 पीढ़ी तक मांडलिक शासक हुए। फुलझर के अंतिम भैना शासक काशीराज के राजत्व काल में चांदा (चंद्रपुर महाराष्ट्र) के गोंड़ राजवंश के सेनापति और बांधागढ़ (ओडिशा) के राजा घोघरा साय ने फुलझर पर आक्रमण कर काशीराज को पराजित किया। राजा काशीराज ने आक्रमण से अपने परिवार को बचाने बूढ़ाडोंगर के एक गुफा (भैना बिल) ने छुपा दिया लेकिन बचा नहीं सका था।

युद्ध में पराजय से व्यथित होकर काशीराज ने पर्वत की शिखर (खेमाखूंटी) से घोड़ा सहित छलांग लगाकर आत्महत्या कर लिया और उसकी 7 रानियों ने भी पर्वत से कूद कर आत्महत्या कर ली थीं। घोघरा साय की गोंड़मारू सेना ने भैना बिल में छुपे राज परिवार को गुफा के मुहाने में आग लगाकर मार डाला था। बसना विकासखंड मुख्यालय से लगभग 6 किलोमीटर की दूरी पर गढ़ फुलझर नामक प्राचीन गांव है जो भैना राजा मानसिंह का मुख्यालय था। यहां राजा मानसिंह द्वारा निर्मित “मान सरोवर” नामक बड़ा तालाब और भग्नावस्था में किला भी है। भैना राजाओं ने फुलझर राज्य में अनेक स्थानों में अपने वंश के वीर योद्धाओं के स्मरण में पाट देवताओं को स्थापित किया था जिनमें से पंडोरा पाट, सिरका पाट, सेंद्रा पाट, विक्रम पाट, कोटला पाट, धनसीर पाट, मुधा पाट, शंकर पाट, छत्तरा पाट, राकम पाट, पर्रा पाट, अंधरा पाट प्रमुख हैं । इसी तरह अपने राज्य के प्रशासनिक एवं सुरक्षा व्यवस्था के लिए राज्य में 12 गढ़ों की स्थापना किए थे जो क्रमशः राफेल गढ़, सिंघोड़ा गढ़, अमर कोट, कुटेला गढ़, बिलाई गढ़, नवागढ़, गढ़ पटनी, कोट गढ़, गौरटेक गढ़, पुड़ा गढ़, गढ़गांव, गढ़ फुलझर हैं।

 

इस पराजय के बाद फुलझर राज के सभी भैना परिवारों ने पलायन कर ओडिशा में शरण लिए। विजयी राजा घोघरा साय शिशुपाल नामक योद्धा को फुलझर का सामंत नियुक्त कर बांधागढ़ लौट गया और 11 वर्ष बाद उसकी मृत्यु हो गई। सामंत शिशुपाल ने बूढ़ाडोंगर को अपना मुख्यालय बनाया इसलिए डोंगर “शिशुपाल पर्वत” कहलाने लगा। घोघरा साय के बाद उसके पुत्र मोगरा साय फुलझर के राजा बने। इन्हीं के 23 वें पीढ़ी के श्री देवेन्द्र बहादुर सिंह वर्तमान में सरायपाली महल के वर्तमान उत्तराधिकारी हैं । जानकार बताते हैं कि भैना वंश की कुल देवी बिलाई माता और खंभेश्वरी माता के अवशेष सरायपाली से सिहावा तक बिखरे हुए हैं। सिहावा के पुराने थाना भवन में खंभेश्वरी माता का अवशेष होने की जानकारी मिलती है। धमतरी के बिलाई माता को अब विंध्यवासिनी देवी पुकारा जाने लगा है। इसी तरह शिशुपाल पर्वत को महाभारत की कथा से जोड़कर अनेक कहानियां लोक में प्रचारित हैं। (Chhattisgarh )

वर्तमान में भैना जाति के लोग बिलासपुर, रायगढ़ क्षेत्र में अधिक हैं और अनुसूचित जनजाति में शामिल हैं। इस जाति का पूर्व काल में कंवर जनजाति से रोटी-बेटी का संबंध होता था। भैना जाति के लोग बूढ़ादेव की पूजा घर के भीतर देवता खोली में करते हैं लेकिन गोंड़ जाति के लोग घर के आंगन में करते हैं।

छत्तीसगढ़-ओडिशा के सीमांत क्षेत्र के लोगों के मानस में गोंड़मारू सेना, रोहिल्ला और पिंडारियों का आतंक सुरक्षित है। पिंडारियों की कुछ जानकारी इतिहास की पुस्तकों में मिलती है, गोंड़मारू सेना के बारे में श्रमिक नेता स्व शंकर गुहा नियोगी ने सोनाखान के प्रसंग में संक्षेप में लिखा है किंतु रोहिल्ला के बारे में साहित्यिक जानकारी उपलब्ध नहीं है। (Chhattisgarh)

Ghanaram Sahu Raipur

आलेख :
घनाराम साहू – सह प्राध्यापक
शासकीय इंजीनियरिंग कॉलेज रायपुर, छ.ग.

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