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Rajimdham: राजिम का नामकरण कैसे हुआ, क्या हैं इसका ऐतिहासिक महत्व, पढ़ें यह पूरा लेख

Rajimdham: हिंदी साहित्य सागर में महान स्वतंत्रता सेनानी पं सुंदर लाल शर्मा जी प्रथम कवि, साहित्यकार थे, जिन्होंने राजिम धाम (Rajimdham) के महात्म्य का संपादन कर राजिम भक्तिन माता से संबंधित दुर्लभ ऐतिहासिक सूत्रों को पिरोने का कार्य किया था। कहा जाता है कि पं शिवराज ने “श्री राजीव क्षेत्र महात्म्य” की रचना मूलतः हिंदी पद्यों में की थी, जिसका संपादन पं सुंदर लाल शर्मा जी ने सन 1898 में किया था। इस ग्रंथ का प्रकाशन पंडित जी के पुत्र नीलमणि शर्मा जी ने सन 1915 में कराया था।

ग्रंथकार ने महादेव – पार्वती संवाद के माध्यम से राजिम (Rajimdham) के महात्म्य को 7 अध्यायों में पूर्ण किया है। ग्रंथ के प्रथम अध्याय में गज-ग्राह संग्राम, द्वितीय अध्याय में राजा रत्नाकर-असुर संग्राम, छठे और सातवें अध्याय में कुलेश्वर तथा पंचकोसी परिक्रमा के मंदिरों का वर्णन है।

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श्री राजीव क्षेत्र महात्म्य के तृतीय अध्याय में कांकेर के शिव-भक्त कंडरा राजा द्वारा राजीवपुर से लोचन भगवान की मूर्ति को अपनी राजधानी ले जाने का उपक्रम का वर्णन है। राजा पूजरियों एवं भक्तों के विरोध को बाहुबल से पराजित कर मूर्ति को नदी मार्ग से ले जाने का प्रयास करता है। नाव के धमतरी के निकट पहुंचने पर दिव्य प्रकाश होता है और नदी में बवंडर उठता है, जिससे नाव नदी में डूब जाती है।
चतुर्थ अध्याय में कवि लिखते हैं –
तेलिन एक सुभक्ति करही।
निस दिन ध्यान प्रभु के धरही।।
राजिम नाम जगत विख्याता।
सुमरहि सदा स्वजन सुख दाता।।
राजिम भक्तिन सम्पन्न तैलिक परिवार की थी, जो नित्य प्रातःस्नान, ध्यान,सत्संग और दान किया करती थी। वह कंडरा राजा द्वारा लोचन को ले जाने से दुखी थी।
राजिम महानदी नित न्हावै।
प्रभु कर ध्यान धरै सुख पावै।।
श्यामल शिला रेत पर देखी।
राजिम मद मुद भयउ विशेषी।।
अति चिक्कन सुंदर सुखदाई।
तेजवंत कछु बरनि न जाई।।
राजिम भक्तिन को महानदी के रेत में वही काला चिकना शिला दिखाई देता है। वह उसे अपने घर ले आती है और तेल घानी में स्थापित करती है, इससे उनके व्यापार में वृद्धि होती है।
पांचवें अध्याय में राजा जगतपाल की कथा है। जगतपाल दुर्ग के प्रजा पालक राजा थे जो राम भक्त थे । उनकी रानी के बारे में कवि लिखते हैं –
सत्य शारदा मोती रानी।
रूप राशि गुण शील सयानी।।
रानी करहिं शंभु कर पूजा।
नृप सेवा करि और न दूजा।।
अर्थात राजा जगतपाल की रानी शिव-भक्त थी । एक बार राजा के स्वप्न में भगवान आकर कहते हैं –
राजिम नाम भक्त इक़ तेली।
धरहि मोहि घानी नित पेली।।
भक्त संकोच करे नहीं आवा।
सुन नृप ! मैं नाना दुख पावा।।
स्वप्न के बाद राजा जगतपाल द्वारा राजिम भक्तिन माता के चिकने काले चमत्कारी पाषाण विग्रह को प्राप्त करने का विस्तार से वर्णन है। अंततः राजिम भक्तिन राजा से कहती हैं –
भूपति ! तुव आज्ञा सिर माहो।
पालहि सदा धर्म्म यह आही।।
ताते शिला देत सुखराशी।
पै इक अरज करति दासी।।
मोको और साथ कछु नाहीं।
मेरो नाम रहै भुवि माही।।

राजा जगतपाल भक्तिन की मांग को स्वीकार कर नगर का नाम और देव के नाम के आगे राजिम नाम रखना स्वीकार करते हैं।
इस ग्रंथ प्रसंग में कुछ स्थानों के जगतपाल और जगपाल नाम पर कवि का भ्रम दिखता है। राजा को कलचुरी सामंत / राजा जगपाल मान लेने से कांकेर के कंडरा राजा से इतिहास का संगत नहीं बैठता है क्योंकि यह सिद्ध है कि कलचुरी राजवंश के समकालीन कांकेर में कोई कंडरा राजा नहीं था तथा जगपाल के डेढ़-दो सौ वर्ष बाद धर्मदेव नामक की उपस्थिति उल्लेखनीय है। ग्रंथ में कंडरा राजा को और राजा जगतपाल की रानी को शिव भक्त तथा राजिम भक्तिन माता को महानदी के रेत में काले रंग के चिकने पाषाण विग्रह मिलना बताया गया है; इन तथ्यों की संगति मुख्य मन्दिर के गर्भ गृह में विष्णु प्रतिमा के निकट थाली में रखे शिवपिंडी से बैठती है, जिसे लोक में सालिग्राम के नाम से पहचाना जाता है। ग्रंथों से प्रमाण मिलता है कि ईसा की 3 री – 4 थी सदी में हैहयवंशी राजा जगतपाल हुआ था। तब क्षेत्रिय क्षत्रप के रूप में किसी कंडरा राजा का होना संभव है। गुप्त काल को भारत में व्यापार / व्यवसाय के विकास की दृष्टि से स्वर्णिम काल माना जाता है तथा तैलिक समाज का गुप्तवंश से संगति भी बैठता है। इन तथ्यों को दृष्टिगत रखते हुए माना जाना चाहिए कि राजिम भक्तिन माता 3 री – 4 थी सदी की विदुषी, तेजस्वी नारी थी और इन्हीं के पावन स्मरण में स्थान नाम और देवनाम का नामकरण हुआ है।

आलेख :
प्रोफ़ेसर घनाराम साहू रायपुर (छ.ग.)

Professor Ghanaram Sahu Raipur

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