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Shrisangam Rajimdham: श्रीसंगम राजिम धाम का पौराणिक इतिहास, पढ़ें यह पूरा लेख

Shrisangam Rajimdham: भारत वर्ष में तीन नदियों के संगम स्थली को “त्रिवेणी संगम” और यज्ञ भूमि को “प्रयाग” कहने की परंपरा है। छत्तीसगढ़ के राजिम धाम की तुलना त्रिवेणी संगम और प्रयाग से की जाती है। इस उपमा को जानने राजिम के पौराणिक इतिहास को गहराई से जानना होगा। राजिम में तीन नदियों का संगम प्रत्यक्ष दिखता तो नहीं है लेकिन वर्षा ऋतु में बाढ़ आने पर तीन रंगों की जल धाराएं अवश्य दिखाई देती हैं। सिहावा से निकलने वाली नदी, जिसे बोलचाल में महानदी कहा जाता है लेकिन शास्त्रों में इसे “उत्पलेश” तथा बिन्द्रानवागढ़ राज्य के भाटीगढ़ से निकलने वाली पैरी नदी को प्रेतोद्धारिणी / पित्रोद्धारिणी कहा गया है। इन्हीं दोनों नदी के संगम (Shrisangam) पर प्राचीन नगर राजिम धाम बसा हुआ है।

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राजिम से लगभग 20 किलोमीटर की दूरी पर ऐतिहासिक गांव कोपरा-पांडुका के बीच मोहेरा गांव के निकट पैरी और सोंढुल नदी का संगम है। सोंढुल नदी जो ओडिशा के नवरंगपुर जिला से निकली है को प्राचीन ग्रंथों में सुन्दराभूति / सुदामा कहा गया है। महाभारत ग्रंथ में भी प्रेतोद्धारिणी और उत्पलेश के संगम को प्रेत कर्म हेतु सर्वोत्तम कहा गया है, जिसका विस्तार से वर्णन कपिल संहिता में है। इस संगम के बाद नदी को “चित्रोत्पला” कहा जाता है। इस नामकरण की संज्ञा वास्तव में ओडिशा के सोनपुर में चित्रा देवी के मंदिर से है, जहां चित्रोत्पला और तेल नदी (जिसे उत्पलिनी / तेलवाहा भी कहा जाता है) के संगम तट पर स्थित है। कुछ ग्रंथकार चित्रोत्पला को नीलोत्पला भी कहते हैं लेकिन इसका विस्तृत विवरण उपलब्ध नहीं है। इन पंक्तियों के लेखक का मत है कि नीलोत्पला नामकरण पैरी और सोंढुल के उद्गम क्षेत्र में पाये जाने वाले दुर्लभ रत्न अलेक्जेंडराइट (क्राइसोबेरिल) और शिरीष के फूल के रंग के हीरा से हुआ होगा। अलेक्जेंडराइट दिन के प्रकाश में समुद्र की तरह नील-हरा लेकिन रात की कृत्रिम रोशनी में रंग बदलकर लाल हो जाता है। चूंकि राजिम धाम में तीन नदियों का प्रत्यक्ष संगम नहीं है इसलिए इसे त्रिवेणी संगम कहना युक्तियुक्त नहीं लगता है।

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राजिम धाम के प्राचीन महात्म्य से संबंधित किवदंतियों में से एक से “श्रीसंगम” (Shrisangam) होने की पुष्टि होती है। चित्रोत्पला के संगम में प्राचीन शिवालय है, जिसे कुलेश्वर महादेव मंदिर कहा जाता है। इस मंदिर को कुछ लोग “कोल्हेश्वर महादेव” भी कहते हैं लेकिन शास्त्रों में इसे “उत्पलेश्वर महादेव” कहा गया है और कुलेश्वर को इसी का अपभ्रंश माना गया है। कुलेश्वर महादेव के मंदिर में 8वीं – 9वीं शताब्दि का एक शिलालेख मिला है जो अत्यधिक घिस गया है इसलिए विद्वान इस लेख के पांचवीं पंक्ति से एक शब्द “श्रीसंगम” (Shrisangam) ही पढ़ सके हैं। किवदंती के अनुसार त्रेता युग में श्रीराम के राज्याभिषेक उपरांत अश्वमेध यज्ञ का आयोजन किया गया था। इस अवसर पर श्यामकर्ण नामक घोड़ा छोड़ा गया, जो विचरण करते हुए महानदी के तट पर पहुंचा। घोड़ा की रक्षा के लिए शत्रुघन को सेना सहित तैनात किया गया था। तब राजिम क्षेत्र के राजा राजीवलोचन था (सर रिचर्ड जेन्किन्स ने राजू लोचन लिखा है); राजा श्यामकर्ण को पकड़कर नदी तट पर स्थित कर्दम ऋषि आश्रम में बांध देता है। घोड़ा को ऋषि आश्रम में बंधा देखकर शत्रुघन की सेना आक्रमण करती है, जिससे ऋषि का ध्यान टूट जाता है। कर्दम ऋषि शत्रुघन की सेना के आक्रमण से क्रोधित होकर सेना सहित शत्रुघन को भस्म कर देते है। शत्रुघन के भस्म होने सूचना मिलने पर श्रीराम राजिम आते हैं। राजा राजीवलोचन श्रीराम के समक्ष शरणागत होकर अभय प्राप्त कर लेता है। श्रीराम कर्दम ऋषि को प्रार्थना कर प्रसन्न करते हैं, जिससे ऋषि प्रसन्न होकर शत्रुघन को सेना सहित पुनर्जीवित कर देते हैं।

श्रीराम अयोध्या वापसी के पूर्व राजा राजीवलोचन को निर्देश देते हैं कि नदी के संगम में नीलकंठेश्वर विराजमान हैं इसलिए दोनों में एकरूपता स्थापित करने, यहां उनका एक मंदिर का निर्माण करे जो भविष्य में राजीवलोचन मंदिर के नाम से प्रतिष्ठित होगा। राजा श्रीराम का मंदिर बनवाते हैं जो राजीवलोचन मंदिर के नाम से जाना जाता है।

यद्यपि भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण के ब्रिटिशकालीन महानिदेशक एलेग्जेंडर कनिंघम इस कहानी को पंडे-पूजरियों की गढ़ी हुई कहानी मानकर खारिज कर दिए थे फिर भी कुलेश्वर मंदिर का शिलालेख प्राचीन इतिहास की झलक दिखाता ही है। पौराणिक ग्रंथों में श्रीराम को विष्णु का अवतार बताया गया है। पौराणिक कथा के अनुसार एक बार शिव और विष्णु के बीच युद्ध हुआ था, जिसमें शिव ने त्रिशूल से विष्णु की छाती में वार किया था तथा विष्णु ने शिव का कंठ दबाया था। इस युद्ध में हुए घात-प्रतिघात से विष्णु की छाती में घाव का निशान रह जाता है तब वे “श्रीवत्स” और शिव के कंठ में निशान रह जाने से “श्रीकंठ” कहलाते हैं । राजिम शिव और विष्णु आराधना का प्राचीन संगम (Shrisangam) स्थली है इसलिए “श्रीसंगम” संज्ञा की सार्थकता प्रमाणित होती है तथा पौराणिक कथाओं के अनुसार सतयुग से वर्तमान तक अनेक राजाओं का यज्ञ स्थली होने के कारण प्रयाग शब्द का समीकरण भी उचित प्रतीत होता है।

आलेख :
प्रोफ़ेसर घनाराम साहू रायपुर (छ.ग.)

Professor Ghanaram Sahu Raipur

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