Karma Jayanti 28 March 2022: तैलिक वंश की आराध्य देवी भक्त माता कर्मा जयंती पर विशेष लेख
Bhakt Mata Karma Jayanti: आज 28 मार्च 2022, दिन – सोमवार को भक्त माता कर्मा जयंती है, जो छत्तीसगढ़ के सभी जिलों में विविध प्रकार से मनाया जाता है। अधिकांश स्थानों में शोभायात्रा निकलती है तथा कुछ स्थानों में सामूहिक विवाह का आयोजन भी होता है। यह पर्व पखवाड़ा भर चलता है। वास्तव में इस पर्व के दौरान साहू संगठनों का वार्षिक जलसा/सम्मेलन होता है।
साहू समाज में स्थापित हो चुकी भक्त माता कर्मा का कोई इतिहास या शास्त्र प्रमाण उपलब्ध नहीं है लेकिन उत्तर भारत के जाट समाज की इष्टदेवी कर्मा बाई का संक्षेप में वर्णन 17 वीं सदी के संत नाभा जी के “भक्तमाल” में लिखते हैं :-
‘हुती एक बाई ताको कर्मा सुनाम जानि बिना रीति भांति भोग खिचरी लगावहीँ।
जगन्नाथ देव आपु भोजन करत नीकें जिते लगे भोग तामे यह भावहीँ।।
गयो तहां साधु मानि बड़ो अपराध करै भरे बहु स्वांस सदाचार लै सिखावहीँ।
भई यों अबार देखै खोलि कैं किवार जोपै जूठन लगी है मुख धोये बिनु आवहीं।।’
यद्यपि संत नाभा जी ने कर्मा बाई के जन्म और कर्म स्थलों का उल्लेख नहीं किया है लेकिन जनश्रुति अनुसार वह मेवाड़ राज्य की थी। कर्मा बाई के बारे में कहा जाता है कि वह श्रीकृष्ण की भक्त थी जो प्रचलित कर्मकांड के नियमों का बिना पालन किये नित्य खिचड़ी बनाकर श्रीकृष्ण को समर्पित करती थी। प्रातःकाल बिना स्नान-ध्यान किये भगवान के लिए रसोई बनाते देख एक ऋषि को उचित नहीं लगता है और वह कर्मा बाई को शुद्धिकरण उपरांत ही रसोई पकाने का उपदेश देता है। कर्मा बाई को स्नान-ध्यान उपरांत रसोई बनाने में विलंब हो जाता है लेकिन श्रीकृष्ण नियत समय में उसकी कुटिया में पहुंच जाते हैं और भूखे होने की बात कहते हैं। कर्मा बाई को श्रीकृष्ण के भूखा होने की बात पर दुख होता है। श्रीकृष्ण कर्मा बाई को पूर्व की तरह बिना किसी कर्मकांड के रसोई पकाने कहते हैं। उपदेशक ऋषि को पूरा वृतांत देखकर आत्मज्ञान प्राप्त होता है और कर्मा बाई को दिए उपदेश पर पश्चाताप भी। इस कहानी के माध्यम से ईश उपासना में कर्मकांडों पर प्रहार कर समाज को जागरूक बनाने का संदेश निहित है।
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भारतवर्ष में कर्मा जयंती (Bhakt Mata Karma Jayanti) का शुभारंभ रायपुर में सन 1974 से प्रारम्भ होना बताया जाता है। इसके पूर्व किसी अन्य स्थान या राष्ट्रीय संगठन द्वारा कर्मा जयंती मनाने का कोई प्रमाण उपलब्ध नहीं है क्योंकि सन 1973 में अखिल भारतीय तैलिक महासभा के महामंत्री द्वारा प्रकाशित “तेली जाति का इतिहास” पुस्तक में भक्त माता कर्मा का कोई उल्लेख नहीं है। मौखिक श्रोतों से मिली जानकारी के अनुसार भाषाविद एवं भिलाई स्पात संयंत्र के अधिकारी रहे स्व डॉ मनराखन लाल साहू जी भक्त माता कर्मा की कहानी के रचयिता थे। तब से आज तक वही कहानी कुछ संशोधनों के साथ छत्तीसगढ़ और आसपास के राज्यों में प्रचारित है तथा तुलनात्मक रूप राज्य में सर्वाधिक जनभागीदारी वाला पर्व के रूप में स्थापित हो चुका है।
प्रचलित कहानी के अनुसार भक्त माता कर्मा का जन्म झांसी के तैलिक परिवार में चैत्र मास एकादशी के दिन सन 1016 (संवत 1073) को हुआ था, इस तिथि को पापमोचिनी एकादशी भी कहते हैं। कर्मा के पिता रामशाह धनिक व्यापारी थे। कर्मा बाल्यकाल से प्रभु जगन्नाथ की भक्त उपासिका थी। कर्मा का विवाह नरवरगढ़ के तैलिक परिवार में होता है। कहानी के अनुसार नरवर के राजा के हाथी को खुजली रोग हुआ था और किसी वैद्य ने हाथी को तेल कुंड में डुबाने की सलाह दिया था। काल गणना अनुसार नरवर का राजा कछुवाहा वंश के मंगलराज या उसका पुत्र कीर्तिराज रहा होगा। हाथी के रोग के उपचार के लिए एक विशाल कुंड को तेल से भरने का राजाज्ञा जारी हुआ। नरवर के तैलिक परिवारों के लिए कुंड को तेल से भरना संभव नहीं था इसलिए व्यवस्था बिगड़ने लगी। भक्त कर्मा के नेतृत्व में तैलिक परिवारों ने जनविद्रोह किया। जीवन के उत्तरार्ध में भक्त कर्मा प्रभु जगन्नाथ के दर्शन के लिए ओडिशा के पुरी पहुंचती है। वहां मंदिर प्रवेश के लिए पुजारियों से संघर्ष होता है। माता कर्मा मंदिर के बाहर धुनी रमा लेती है और जगन्नाथ भगवान को खिचड़ी ग्रहण करने मंदिर से बाहर निकलकर कर्मा के पास आना पड़ता है। भगवान जगन्नाथ के दर्शन उपरांत सन 1064 (संवत 1121) चैत्र शुक्ल एकम तिथि को भक्त माता कर्मा को निर्वाण प्राप्त होता है।
भक्त माता कर्मा की इस पूरी कहानी से निष्कर्ष निकलता है कि वह 49 वर्ष की अल्पआयु में राजसत्ता और धर्मसत्ता से जुझती है और अपने अभियान में सफल रहती है। राजा के हाथी का बीमार होना एक बहाना मात्र था; राजसत्ता का वास्तविक उद्देश्य समृद्ध तैलिक वंश का दमन करना ही रहा होगा। इन पंक्तियों के लेखक का अनुमान है कि झांसी और नरवरगढ़ तब राजपूत राज्य के अधीन रहे होंगे। ऐतिहासिक एवं पुरातत्विक अवशेषों से वर्तमान नरवर में प्राचीन तेल कुंड होने की सूचना नहीं मिलती है लेकिन गोदावरी नदी के तट पर चालुक्य राजाओं की राजधानी में तेल का विशाल वापी (कुंड) होना सिद्ध है। उस वापी में चालुक्य राजा युद्धमल हाथी स्नान का उत्सव आयोजित करता था (अस्त्यादित्यभवो वंश चालुक्य इति विश्रुतः। तत्राभुदयुद्ध मल्लाख्यः नृपतिरविक्रमार्णावः।। सपादलक्ष्भुभर्ता तैलवाप्यां सपोदने। अवगहोत्सवं चक्रे शक्रश्रीम्मर्ददंतिनां।। परभणी ताम्रपत्र)।
ऐतिहासिक प्रमाण यह भी मिलता है कि धार राज्य के परमार राजपूत राजा भोज और त्रिपुरी के हैहयवंशी चेदि क्षत्रिय राजा गांगेयदेव के बीच प्रतिस्पर्धा थी। गोदावरी तट के चालुक्य राजा गांगेयदेव के सहयोगी भी रहे हैं। परमार भोज के राजत्वकाल में रचित “प्रबन्धचिंतामणि” ग्रंथ में इसका साक्ष्य मिलता है। इस ग्रंथ के 72 वें श्लोक में भोज की प्रभुता का वर्णन करते हुए कवि लिखते है कि “चौड़ का राजा समुद्र की गोद में प्रवेश कर रहा है, आंध्रपति पर्वत की खोह निवास कर रहा है, कर्णाट का राजा पगड़ी बंधन नहीं करता है, गुर्जर का राजा निर्झर का आश्रय लेता है, चेदि नरेश अस्त्रों से म्लान हो गया है और राजाओं में सुभट समान कान्यकुब्ज कुबड़ा हो गया है – हे भोज! तुम्हारे सेना तंत्र के प्रसार के भय से ही सभी राजा लोक व्याकुल हो रहे हैं।” इसी कथन के आधार पर इतिहासकारों ने मान लिया है कि परमार भोज ने इन सभी राजवंशों को पराजित किया था। यद्यपि चेदि नरेश गांगेय देव के तेली जाति का होने का कोई साक्ष्य नहीं है फिर भी प्रचलित मुहावरा “कहाँ राजा भोज और कहां गंगू तेली” के कारण तेली साहू समाज के लोग उन्हें तेली होना मानने लगे हैं।
आलेख : प्रोफ़ेसर घनाराम साहू
रायपुर, छत्तीसगढ़
(28 March Bhakt Mata Karma Jayanti)