भारत में 73 साल के संविधान में 127 बार हुए बदलाव, पढ़ें पूरी खबर

India Constitution: भारत को 15 अगस्त 1947 को आजादी मिली थी। इसके बाद 26 जनवरी 1950 को संविधान लागू हुआ था। तब 73 साल में 127 संविधान संशोधन हो चुके हैं। इतने बदलावों के बाद भी हमारे संविधान का मूल आधार जस का तस है। दरअसल, इसकी वजह ये है कि संविधान में बदलाव के लिए संसद की मंजूरी जरूरी होती है। संसद में संविधान को बदलने का हर प्रस्ताव बहस और वोटिंग से गुजरता है। तब उस पर फैसला लिया जाता है। अगर बहुमत के आधार पर संसद से संविधान में बदलाव कर भी दिया जाए तो कोर्ट में उसे चैलेंज किया जा सकता है।

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कोर्ट के पास इसे रिव्यू करने और ये तय करने का अधिकार है कि ऐसे किसी बदलाव से संविधान का मूल ढांचा न बदले। संविधान के आर्टिकल 368 में तीन तरह से संशोधन करने का जिक्र है। पहला ये कि अगर संसद चाहे तो भी मूल संरचना नहीं बदल सकती है। सुप्रीम कोर्ट के एडवोकेट कहते हैं कि किसी भी तरह से संविधान की मूल संरचना को नहीं बदला जा सकता। इसका मतलब लोकतांत्रिक आदर्शों की व्याख्या करने वाले प्रावधानों को किसी संशोधन के जरिए नहीं हटाया जा सकता। संविधान में मूल संरचना साफ तरीके से नहीं लिखी गई है। इसीलिए इन पर कन्फ्यूजन है। (India Constitution)

बता दें कि साल 1971 में सुप्रीम कोर्ट के 11 जजों की बेंच ने कहा था कि संसद को लोगों के मौलिक अधिकार कम करने का अधिकार नहीं है। आर्टिकल 368 के जरिए संविधान की मूल संरचना नहीं बदली जा सकती। हालांकि संविधान में 24वें संशोधन के जरिए इसे बदल दिया गया। केरल के धर्मगुरु केशवानंद भारती केस में 13 जजों की पीठ ने बहुमत से फैसला दिया था कि संविधान संशोधन पर इकलौता प्रतिबंध ये है कि इसके जरिए संविधान के मूल ढांचे को क्षति नहीं पहुंचाई जा सकती। सुप्रीम कोर्ट का तर्क था कि संविधान सभा का महत्व मौजूदा विधायिका की तुलना में ज्यादा है। इसलिए संसद संविधान के सार तत्व को नहीं बदल सकती। इनमें संविधान की सर्वोच्चता, धर्मनिरपेक्षता, व्यक्ति की स्वतंत्रता और गरिमा शामिल हैं। (India Constitution)

वहीं दुनिया का सबसे बड़ा लिखित संविधान होने के बाद भी इंडियन कॉन्स्टीट्यूशन में आधारभूत ढांचे की साफ परिभाषा नहीं है। न्यायपालिका इसकी व्याख्या करती है, जिस पर कई बार विवाद होता है। जानकारों का कहना है कि ऐसे अपवादों के बावजूद संविधान का मूल ढांचा विधायिका यानी संसद को निरंकुश होने से रोकता है और लोकतंत्र को मजबूत करता है। 1975 में इलाहाबाद हाईकोर्ट ने तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को चुनाव में सरकारी मशीनरी के गलत इस्तेमाल का दोषी मानते हुए उनका निर्वाचन रद्द कर दिया था। कोर्ट ने इसे रिप्रजेंटेशन ऑफ द पीपल एक्ट के सेक्शन 123(7) का उल्लंघन माना। (India Constitution)

वहीं इंदिरा सुप्रीम कोर्ट गईं तो अदालत ने स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव को संविधान की आधारभूत अवसंरचना का भाग माना और कहा कि इस मामले की न्यायिक समीक्षा हो सकती है। साल 1980 में कर्नाटक की टेक्सटाइल कंपनी मिनर्वा मिल्स बनाम भारत सरकार केस में सुप्रीम कोर्ट फैसला दिया कि संविधान के आर्टिकल 368 का सेक्शन (4) कानूनन सही नहीं है, क्योंकि इसे ज्यूडिशियल रिव्यू को खत्म करने के लिए पास किया गया था। कोर्ट ने कहा कि रिट दाखिल करने का अधिकार संविधान का आधारभूत लक्षण है। । 1988 में कर्नाटक में एसआर बोम्मई की सरकार में से 19 विधायकों ने समर्थन वापस ले लिया था। इसके बाद राज्यपाल ने राष्ट्रपति शासन लगाने की सिफारिश कर दी।

केंद्र सरकार ने आर्टिकल 356 के तहत बोम्मई की सरकार बर्खास्त कर दी। इस केस में सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि अगर केंद्र राज्य में चुनी हुई सरकार को बर्खास्त करता है तो कोर्ट इसके कारणों की समीक्षा कर सकता है। किसी राज्य सरकार के बहुमत का फैसला विधानसभा में होना चाहिए, राजभवन में नहीं। संविधान की प्रस्तावना में कहा गया है कि लोगों का, लोगों के लिए और लोगों के द्वारा तैयार की गई नियमावली है। इसे ही संविधान की आत्मा कहा जाता है, लेकिन डॉ बीआर अंबेडकर ने रिट दाखिल करने के अधिकार को संविधान का दिल करार दिया। इसे लीगल टर्म में ‘संवैधानिक उपचार’ कहा जाता है। (India Constitution)

इसी के आधार पर सुप्रीम कोर्ट आर्टिकल 32 और हाईकोर्ट आर्टिकल 226 के तहत पांच तरह की रिट पर एक्शन लेते हैं, जिस आर्टिकल 32 की बात हो रही है, उसमें लोगों के मूल अधिकारों के संरक्षण की गारंटी दी गई है। साथ ही यह कहा गया है कि अधिकारों को सुरक्षित रखने का तरीका आसान और छोटा होना चाहिए। हालांकि इसके तहत केवल नागरिकों के मूल अधिकारों की सुरक्षा की गारंटी दी गई है कानूनी अधिकार इसमें शामिल नहीं हैं। संविधान से संबंधित किताब लिखने वाले लेखक ने डॉ अंबेडकर का हवाला देते हुए लिखा है कि संविधान कितना भी अच्छा क्यों न हो, अगर इस पर काम करने वाले लोग खराब होंगे तो यह खराब होगा और संविधान कितना भी खराब क्यों न हो, अगर इसके लिए काम करने वाले लोग अच्छे होंगे तो यह अच्छा होगा।

वहीं सोशल जस्टिस से संबंधित किताब लिखने वाले लेखक ने कहा कि कई चूकों की तरफ इशारा करते हैं। उन्होंने ग्रेनविल ऑस्टिन के 1966 के ‘दि इंडियन कॉस्टीट्यूशन कॉर्रन स्टोन ऑफ ए नेशन’ का जिक्र करते कहा है कि संविधान निर्माता भविष्य की जटिलताओं और घटनाओं को नहीं देख पाए। हालांकि अपनी किताब में उन्होंने ये भी कहा है कि संविधान में मौजूद न्याय की तमाम अवधारणाओं में खामियों के बावजूद संविधान की ठीक व्याख्या और अमल से लोकतांत्रिक पतन रोकने में बड़ी मदद मिल सकती है। इसका मतलब ये है कि संविधान को लेकर जानकारों और लेखकों के अपने अलग-अलग तर्क है, जो कई मायनों में अलग है। (India Constitution)

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