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Chhattisgarh Ka Pola Tihar: ग्रामीण जनजीवन में खुशहाली का प्रतीक हैं छत्तीसगढ़ का पोला तिहार

Chhattisgarh Ka Pola Tihar: भारतीय संस्कृति में पशु पूजा की परम्परा रही है, इसके प्रमाण सिन्धु सभ्यता में भी मिलते हैं। खेती किसानी में पशुधन के महत्व को दर्शाने वाला पोला पर्व छत्तीसगढ़ के सभी अंचलों में परम्परागत रूप से उत्साह के साथ मनाया जाता है। खेती किसानी में पशुधन का उपयोग के प्रमाण प्राचीन समय से मिलते हैं। पोला मुख्य रूप से खेती-किसानी से जुड़ा त्यौहार है। भादों माह में खेती किसानी का काम समाप्त हो जाने के बाद अमावस्या को पोला तिहार (Chhattisgarh Ka Pola Tihar) मनाया जाता है। चूंकि इसी दिन अन्न माता गर्भ धारण करती है अर्थात धान के पौधों में इस दिन दूध भरता है। इसीलिए यह त्यौहार मनाया जाता है। पोला पर्व महिलाओं, पुरूषों और बच्चों के लिए भी विशेष महत्व रखता है।

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पोला पर्व के पीछे मान्यता है कि विष्णु भगवान जब कान्हा के रूप में धरती में आये थे, जिसे कृष्ण जन्माष्टमी के रूप में मनाया जाता है, तब जन्म से ही उनके कंस मामा उनकी जान के दुश्मन बने हुए थे, कान्हा जब छोटे थे और वासुदेव-यशोदा के यहां रहते थे,  तब कंस ने कई बार कई असुरों को उन्हें मारने भेजा था।  एक बार कंस ने पोलापुर नामक असुर को भेजा था, इसे भी कृष्ण ने अपनी लीला के चलते मार दिया था और सबको अचंभित कर दिया था। वह दिन भादों माह की अमावस्या का दिन था। इस दिन से इसे पोला कहा जाने लगा, इस दिन को बच्चों का दिन कहा जाता है।

पोला पर्व के पहले छत्तीसगढ़ में विवाहित बेटियों को ससुराल से मायका लाने की परंपरा है। पोला के बाद बेटियां तीज का त्यौहार मनाती है। तीज के पर्व के सामाजिक और सांस्कृतिक महत्व को देखते हुए मुख्यमंत्री भूपेश बघेल ने सामान्य अवकाश की घोषणा की है। पोला त्यौहार किसानों के लिए विशेष महत्व रखता है। किसान इस दिन धान की फसल धान लक्ष्मी का प्रतीक मानकर, अच्छी और भरपूर फसल की कामना की कामना करते हैं। इस दिन सुबह से किसानों द्वारा बैलों को नहलाकर पूजा अर्चनाकर कृषि कार्य के लिए दुगने उत्साह से जुटने प्रण लेते हैं। बैलों की पूजा के बाद किसानों और ग्वालों के द्वारा बैल दौड़ का आयोजन जाता है। छोटे बच्चे भी मिट्टी के बैलों की पूजा करते हैं। जहां उन्हें दक्षिणा मिलती हैं। गांवों में कबड्डी, फुगड़ी, खो-खो, पिट्टुल जैसे खेलकूद का आयोजन होता है। मिट्टी के बैलों को लेकर बच्चे घर-घर जाते हैं। यह त्योहार पशुधन संवर्धन और संरक्षण की आज भी प्रेरणा देता है।

छत्तीसगढ़ धान की खेती सबसे ज्यादा होती है इसलिए यहां चावल और इससे बनने वाले छत्तीसगढ़ी पकवान विशेषरूप से बनाए जाते हैं। इस दिन चीला, अइरसा, सोंहारी, फरा, मुरखू, देहरौरी सहित कई अन्य पकवान जैसे ठेठरी, खुर्मी, बरा, बनाए जाते हैं। इन पकवानों को मिट्टी के बर्तन, खिलौने में भरकर पूजा की जाती है, इसके पीछे मान्यता है कि घर धनधान्य से परिपूर्ण रहे। बालिकाएं इस दिन घरों में मिट्टी के बर्तनों से सगा-पहुना का खेल भी खेलती हैं। इससे सामाजिक रीति रिवाज और आपसी रिश्तों और संस्कृति को समझने का भी अवसर मिलता है। इस दिन छत्तीसगढ़ में गेड़ी का जुलूस निकाला जाता है। गड़ी, बांस से बनाया जाता है जिसमें एक लम्बा बांस में नीचे 1-2 फीट ऊपर आड़ा करके छोटा बांस लगाया जाता है। फिर इस पर बैलेंस करके, खड़े होकर चला जाता है।

पोला पर्व में मिट्टी के खिलौनों की खूब बिक्री होती है। गांव में परंपरागत रूप से कार्य करने वाले हस्तशिल्पी, बढ़ई एवं कुम्हार समाज के लोग इसकी तैयारी काफी पहले से करना शुरू कर देते हैं। इस त्योहार से उन्हें रोजगार भी मिलता है, लोग मिट्टी के बर्तनों का उपयोग करते हुए एक दूसरे के घरों में मिष्ठान पहुंचाते हैं। इस दिन ग्रामीण क्षेत्रों में मितान बदने की भी परम्परा है। एक दूसरे के घरों में मेल मिलाप के लिए जाते हैं। यह पर्व सामाजिक और सांस्कृतिक रूप से भी हमें मजूबत करता है।

आलेख संकलन : मनोज सिंह 
सहायक संचालक
जनसम्पर्क विभाग रायपुर (छ.ग.)

Manoj Singh Pola Tihar

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