श्राद्ध का महत्व :
श्राद्ध की तिथि
श्राद्ध दो तिथियों पर होते हैं। प्रथम मृत्यु या क्षय तिथि। द्वितीय जिस तिथि को पितर दाह संस्कार हुआ, पितृ पक्ष में उस तिथि को श्राद्ध।
श्राद्ध क्या हैं :
श्राद्ध क्यों किया जाता हैं :
पितरों का ऋण श्राद्ध द्वारा चुकाया जाता है। श्राद्ध /पितृयज्ञ- पितृऋण से मुक्ति के लिए करते है।
कौन श्राद्ध कर सकता :
अधिक पुत्र होने पर सबसे बड़ा पुत्र श्राद्ध कर सकता है।
पुत्र न होने पर कौन कर सकता है श्राद्ध :
पुत्र श्राद्ध, पिंडदान कर सकता है।
पुत्र न होने पर निम्न श्राद्ध कर सकते है।
पुत्र के न होने पर पत्नी श्राद्ध कर सकती है।
पत्नी न हो तो सगा भाई।
सगा भाई न हो संपिंडों को श्राद्ध करना चाहिए।
पुत्री का पति एवं पुत्री का पुत्र भी श्राद्ध के कर सकता है।
पुत्र के न होने पर पौत्र या प्रपौत्र भी श्राद्ध कर सकते हैं।
पुत्र, पौत्र या प्रपौत्र के न होने पर विधवा स्त्री श्राद्ध कर सकती है।
पुत्र, पौत्र या पुत्री का पुत्र न होने पर भतीजा भी श्राद्ध कर सकता है।
गोद लिया पुत्र भी श्राद्ध कर सकता है।
कोई न होने पर राजा कर सकता है।
कुश और तिल दोंनों विष्णु के शरीर से उपन्न हैं।
कुश – ब्रह्मा, विष्णु, महेश कुश में क्रमश: जड़, मध्य और अग्रभाग में रहते हैं।
कुश के किसे भाग से किसको जल अर्पण करना चाहिए?
कुश के अग्रभाग से देवताओं को,
मध्य भाग से मनुष्यों को व
और जड़ के भाग से पितरों अर्पण किया जाता है।
तिल, जौ क्यों : तिल पितरों को प्रिय हैं। तिल, जौ के बिना श्राद्ध किया जाये तो दुष्टात्मायें हवि को ग्रहण करती हैं।
पिण्ड दान क्या हैं : अन्न को पिण्डाकार बनाकार पितर को श्रद्धा पूर्वक अर्पण करना।
मनुष्य और 03 ऋण :
शास्त्रों के अनुसार तीन प्रकार के ऋण प्रमुख हैं :-
पितृ ऋण, देव ऋण तथा ऋषि ऋण।
इनमें पितृ ऋण सर्वोपरि है। पितृ ऋण में समस्त पूर्वज।
एकैकस्य तिलैर्मिश्रांस्त्रींस्त्रीन् दद्याज्जलाज्जलीन्।
यावज्जीवकृतं पापं तत्क्षणादेव नश्यति।
अर्थात् जो अपने पितरों को तिल-मिश्रित जल की तीन-तीन अंजलियाँ प्रदान करते हैं, उनके जन्म से तर्पण के दिन तक के पापों का नाश हो जाता है।
कितनी पीढ़ी तक होता हैं तर्पण श्राद्ध :
पितृपक्ष में तीन पीढ़ियों तक के पिता पक्ष के तथा तीन पीढ़ियों तक के माता पक्ष के पूर्वजों के लिए तर्पण किया जाता हैं। इन्हीं को पितर कहते हैं।
दिव्य पितृ तर्पण, देव तर्पण, ऋषि तर्पण और दिव्य मनुष्य तर्पण के पश्चात् ही स्व-पितृ तर्पण किया जाता है।